कोरोना संक्रमण को देखते हुए इस वर्ष भी सरहुल सादगी से मना रहे हैं आदिवासी समुदाय….
राँची: प्रकृति के पर्व सरहुल आदिवासियों का सबसे बड़ा त्यौहार है। झारखंड में आज सरहूल का त्योहार मनाया जा रहा है। प्रकृति पूजक आदिवासी इस त्यौहार को बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। आदिवासियों के अनुसार सखवा वृक्ष में फूल लगते ही सरहुल मनाने की तैयारी में जुट जाते हैं। सरहुल के बारे में आदिवासी नेता बताते है कि यह पर्व आदिवासी समाज सूर्य और धरती के विवाह के रूप में मनाते हैं। इस दरम्यान आदिवासी नए-नए फल फूल का सेवन नहीं करते हैं- क्योंकि धरती को आदिवासी कुंवारी समान मानते हैं। धरती अपनी विवाह की तैयारी में पूरी श्रृंगार करती है। नए-नए फल फूल पत्ते आदि से पूरी धरती सुहाना हो उठती है।
3 से 4 दिन तक चलने वाले इस त्यौहार का पहला दिन उपवास होता है उसी दिन मछली केकरा के प्रति सम्मान और श्रद्धा अर्पित किया जाता है दूसरे दिन सुबह वाहन की अगुवाई में सरना में पूजा होती है दो नए घड़े में पानी उपवास के पहले दिन सरना में रखे जाते हैं जल भरे घड़े रखे जाने के पीछे आदिवासी समाज वर्षा का अनुमान लगाने की धारणा है मुख्य पाहन जगलाल पाहन ने घड़े में रखे जल को देखकर इस वर्ष अच्छी बारिश का अनुमान लगाया है उन्होंने सभी जगहों पर बारिश होने की बात कही है। वही पूरा गांव सामूहिक रूप से पहन की अगुवाई में साल के फूल को अर्पण में सम्मिलित करते हुए प्राकृतिक शक्तियों की आराधना करता है प्राकृतिक शक्तियों और पूर्वजों के सम्मान में मुर्गे की बलि दी जाती है। इसके बाद सभी साल फूल की छोटी-छोटी डाली को अपने घर ले जाते हैं सामने सभी लोग अखाड़े में ढोल ढाक नगाड़ों के साथ जमा होते हैं और रात भर नृत्य और गान का सिलसिला चलता है तीसरे दिन पहन के नेतृत्व में फूलखोंसी का कार्यक्रम होता है चौथे दिन भी अखड़ा मिटाने के नाम से नृत्यगान कर त्यौहार की समाप्ति की घोषणा की जाती है। हालांकि इस वर्ष भी कोरोना संक्रमण का दौर जारी है जिस कारण आदिवासी समुदाय इस त्यौहार को सादगी पूर्वक अपने घरों में रहकर मना रहे हैं।