शहीद गंगा नारायण सिंह के 231वीं जयंती पर विशेष : चुहाड़ विद्रोह के महानायक थे वीर शहीद गंगानारायण सिंह, अंग्रेजों के साथ डटकर किये थे मुकाबला
अमर शहीद वीर गंगा नारायण सिंह, भूमिज विद्रोह के महानायक कहे जाते थे. सन1767 ईस्वी से 1833 ईस्वी तक, 60 से ज्यादा वर्षों मे भूमिज राजाओं के द्वारा किये गये गये विद्रोह को भूमिज विद्रोह कहा गया है. इसे गंगा नारायण सिंह का हंगामा करार दिया गया है, इसे इतिहासकारों मे चुहाड़ विद्रोह के नाम से भी संबोधित किया गदया. 1765 ईस्वी मे दिल्ली के बादशाह, शाह आलम ने बंगाल, बिहार, उडीसा की दीवानी ईː इंडिया कंपनी को दी थी. इससे आदिवासियों का शोषण होने लगा तो भूमिजों ने विद्रोह कर दिया.
वराहभूम के राजा विवेक नारायण सिंह के दो रानियां थी. दो रानियों के दो पुत्र थे. 18वीं शताब्दी मे राजा विवेक नारायण सिंह के मृत्यु के पश्चात दो पुत्रों मे रघुनाथ नारायण सिंह पारंपरिक भूमिज प्रथा के अनुसार बड़ी रानी की पुत्र को ही उत्तराधिकार प्राप्त था. पंरतु अंग्रेजों ने अपनी रीति के अनुसार राजा के बड़े पुत्र रघुनाथ नारायण सिंह जो, कि छोटी रानी का पुत्र था को राजा मनोनित करने पर लंबा पारिवारिक विवाद शुरू हुआ. स्थानीय भूमिज सरदार लक्ष्मण सिंह का समर्थन करते थे. परंतु रघुनाथ सिंह को प्राप्त अंग्रेजों के समर्थन और सैनिक सहायता के सामने वह टिक नहीं सके. लक्ष्मण सिंह को राज्य से बाहर कर दिया गया. जीवनाकुलित निर्वाह के लिए लक्ष्मण सिंह को बांधडीह गांव जागीर निर्गत कर दिया, जहां उनका काम सिर्फ बांधडीह घाट का देखभाल करना था. लक्ष्मण सिंह की शादी ममता देवी से हुयी. ममता देवी स्वभाव से विनम्र तथा धर्म परायण थी. परंतु आंग्रेज अत्याचार की वह कट्टर विरोधी थी. लक्ष्मण सिंह के तीन पुत्र हुये. गंगानारायण सिंह, श्याम किशोर सिंह एवं श्यामलाल सिंह. ममता देवी अपने दोनो पुत्र गंगा नारायण सिंह एवं श्यामलाल सिंह को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए सदैव प्रेरित करती थी. जंगल महल के गरीब किसानों पर सन 1765 इस्वी मे ईस्ट इंडिया कंपनी ने अत्याचार करना शुरू किया, क्योंकि दिल्ली के मुगल सम्राट बादशाह शाह आलम से बंगाल, बिहार, ओडिशा की दीवानी हासिल कर लिया था तथा राजस्व वसूलने के लिए नये उपाय करने लगे थे. इसके लिए अंग्रेज सरकार ने कानून बनाकर मानभूम, वराहभूम, िसंहभूम, धलभूम, पातकुम, मेदनीपुर, बांकुड़ा तथा बर्धमान आदि स्थानों मे भूमिजों की जमीन से ज्यादा राजस्व वसूलने के लिए नमक कर, दारोगा प्रथा, जमीन विक्रय कानून, महाजन तथा सुदखोर का आगमन, जंगल कानून, जमीन की निलामी तथा दहमी प्रथा, राजस्व वसुली उत्तराधिकारी संबंधी नियम बनाये. इस प्रकार, हर तरह से अदिवासियों और गरीब किसानों पर अंग्रेजों शोषण बढ़ता चला गया. निष्कासित लक्ष्मण सिंह बांधडीह गांव मे बस गये थे और राज्य प्राप्त करने के लिए कोशिश करने लगे थे तथा राजा बनने के लिए संधर्ष कर रहे थे. किंतु बाद मे अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिये गये एवं उसे मेदनीपुर जेल भेज दिया गया, जहां उसकी मृत्यु हो गयी. गंगा नारायण सिंह लक्ष्मण सिंह के पुत्र थे. गंगा नारायण सिंह जंगल महल के गरीब किसानों पर शोषण, दमनकारी संबंधी कानून के विरुद्ध अंग्रेजों से बदला लेने के लिए कट्टीबद्ध हो गये.
समय के पुकार से उस इलाके के लोग सजग होकर सभी गंगा नारायण सिंह के नेतृत्व मे एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध नारा बुलंद किये. उन्होंने अंग्रेजों के हर नीति के विरुद्ध जंगल महल के हर जाति को समझाया और लड़ने के लिये संगठित किया. इसके कारण सन् 1768 ईश्वी मे मŐअसंतोष बढा जो 1832 ईˢी वीर गंगानारायण सिंह के नेतृत्व मे प्रबल संघर्ष का रूप ले लिया. इस संघर्ष को अंग्रेजों ने गंगा नारायण सिंह का हंगामा करार दिया है, जबकि इतिहासकारों ने इसे चुहाड़ विद्रोह के रूप मे करार दिया है.
अंग्रेज शाषण और गंगानारायण सिंह
अंग्रेजों के शाषण और शोषण नीति के खिलाफ लड़नेवाले गंगा नारायण सिंह प्रथम वीर थे, जिन्होंने सर्वप्रथम सरदार गोरिल्ला वाहिनी का गठन किया, जिसपर हर जाति का समर्थन प्राप्त था. धलभूम, पातकुम, शिखरभूम, सिंहभूम, पंचेत, झालदा, काशीपुर, वामनी, वागमुंडी, मानभूम, अंबिकानगर, अमीयपुर, श्यामसुंदरपुर, फुलकुसमा, रानीपुर तथा काशीपुर के राजा-महाराजा तथा जमीनदारों का गंगानारायण सिंह को समर्थन मिल चुका था. गंगा नारायण सिंह ने बराहभूम के दिवान तथा अंग्रेज दलाल माधव सिंह को बनडीह मे 2 अप्रैल 1832 ईश्वी को मार दिया था. उसके बाद सरदार वाहिनी के साथ वराहबाजार मुफ्फसिल का कचहरी, नमक दारोगा कार्यालय तथा थाना को आग के हवाले कर दिया. बांकुड़ा के समाहर्ता रसेल, गंगा नारायण सिंह को गिरफ्तार करने पहुंचे. परंतु सरदार वाहिनी सेना ने उसे चारों ओर से घेर लिया. सभी अंग्रेजी सेना मारी गयी. किंतु रसेल किसी तरह जान बचाकर बांकुड़ा भाग निकले. गंगा नारायण सिंह का यह आंदोलन तुफान का रूप ले लिया था, जो बंगाल के छातना, झालदा, ओक्रा, अंबिकानगर, श्यामसुंदरपुर, रायपुर, फुलकुसमा, शिलदा, कुईलापाल तथा विभिन्न स्थानों मे अंग्रेज रेजीमेंट को रौंद डाला. उनके आंदोलन का प्रभाव बंगाल के पुरूलिया, बांकुड़ा, वर्धमान और मेदनीपुर, बिहार के संपूर्ण छोटानागपुर (अब झारखंड), ओडिशा के मयुरभंज, क्योंझर और सुंदरगढ़ आदि स्थानों मे बहुत जोरों से चला. फलस्वरूप पुरा जंगल महल अंग्रेजों के काबू से बाहर हो गया. सभी लोग एक सच्चा ईमानदार, वीर, देश भक्त और समाजसेवक के रूप मे गंगानारायण सिंह का समर्थन करने लगे. आखिरकार अंग्रेजों को बैरकपुर छावनी से सेना भेजना पड़ा, जिसे लेफ्टीनेंट कर्नल कपूर के नेतृत्व मे भेजा गया. सेना भी संघर्ष मे परास्त हुआ. इसके बाद गंगानारायण सिंह और उनके अनुयायियों ने अपनी कार्य योजना का दायरा बढ़ा दिया. बर्धमान के आयुक्त बैटन और छोटानागपुर के कमीश्नरी हंट को भी भेजा गया, किंतु वह भी सफल नहीं हो पाये और सरदार वाहिनी सेना के आगे हार का मुंह देखना पड़ा.
भूमिज विद्रोह का विस्तार
अगस्त 1832 से लेकर फरवरी 1833 तक पूरा जंगल महल बिहार के छोटानागपुर (अब झारखड), बंगाल के पुरुलिया, बांकुड़ा, बर्धमान तथा मेदनीपुर, ओडिशा के मयुरभंज, क्योंझार औवं सुंदरगढ़ अशांत बना रहा. अंग्रेजों ने गंगानारायण सिंह का दमन करने के लिए हर तरह से कोशिस किया, परंतु गंगा नारायण सिंह के चतुरता और युद्ध कौशल के सामने अंग्रेज टीक नहीं सके. बर्धमान, छोटानागपुर तथा ओडिशा (रायपुर) के आयुक्त गंगा नारायण सिंह से परास्त होकर अपनी जान बचाकर भाग निकले. इस प्रकार संघर्ष इतना तेज और प्रभावशाली था कि अंग्रेज बाध्य होकर जमीन विक्रय कानून, उत्तराधिकारी कानू, लाह पर एक्साईज ड्यूटी, नमक कानून, जंगल कानून वापस लेने के लिए विवस हो गये.
उस समय खरसावां के ठाकुर चैतन सिंह अंग्रेजों के थ साठ-गाँठ कर अपना शासन चला रहा था. गंगा नारायण सिंह ने पोडाहाट तथा सिंहभूम चाईबासा जाकर वहाँ के कोल (हो) जनजातियों को ठाकुर चेतन सिंह तथा अंग्रेजों खलाफ लड़ने के लिए संगिठत किया. 6 फरवरी, 1833 को गंगा नारायण सिंह कोल (हो) जनजातियोंको लेकर खरसावां के ठाकुर चैतन सिंह के हिंदशहर थाने पर हमला किया दुर्भाग्यवश जीवन के अंतिम सांस तक अंग्रेज हुकुमत के खिलाफ संघर्ष करते हुये उसी दिन 7 फरवरी 1833 को एक सशक्त, शक्तिशाली और आंग्रेजों के विरुद्ध लोहा लेनेवाली चुहाड़ विद्रोह के महानायक वीर गंगानारायण सिंह शहीद हो गये.